महिला सशक्तिकरण की अवधारणाः आचार्य विनोबा भावे के साहित्य एवं चिंतन के संदर्भ में
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Abstract
महिला सशक्तिकरण भारतीय समाज-चिंतन और सुधार आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। आधुनिक भारत के प्रमुख चिंतकों में आचार्य विनोबा भावे का स्थान विशेष है, जिन्होंने महिला की गरिमा, समानता और समाज निर्माण में उनकी सक्रिय भागीदारी पर विशेष बल दिया। विनोबा का चिंतन गांधीवादी दर्शन से प्रेरित होते हुए भी अपनी विशिष्टता रखता है। उनके अनुसार महिला सशक्तिकरण का अर्थ केवल विधिक या राजनीतिक समानता तक सीमित नहीं है, बल्कि महिलाओं की बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक क्षमता की पहचान और सम्मान में निहित है।
विनोबा भावे के भूदान और सर्वोदय आंदोलनों में महिलाओं को केवल सहयोगी नहीं, बल्कि परिवर्तन की वाहक शक्ति के रूप में देखा गया। उनका मानना था कि महिलाएँ स्वभावतः अहिंसा, त्याग, करुणा और सेवा जैसे मूल्यों की धारणकर्ता होती हैं, और इन्हीं मूल्यों के आधार पर समाज में संतुलित प्रगति संभव है। पश्चिमी उदारवादी मॉडल की तुलना में विनोबा का दृष्टिकोण भारतीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं में निहित है, जो सशक्तिकरण को व्यक्तिगत गरिमा और सामूहिक उत्तरदायित्व से जोड़ता है।
यह शोधपत्र विनोबा भावे के साहित्य, भाषणों और सामाजिक-धार्मिक पहलों के आधार पर महिला सशक्तिकरण की उनकी अवधारणा का आलोचनात्मक विश्लेषण करता है। साथ ही यह भी अध्ययन करता है कि उनके विचार आज के लैंगिक विमर्श, नीतिगत निर्माण और जमीनी आंदोलनों के संदर्भ में कितने प्रासंगिक हैं। निष्कर्षतः यह शोध इस तथ्य को रेखांकित करता है कि विनोबा का दृष्टिकोण महिला सशक्तिकरण के लिए एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करता है, जो भौतिक प्रगति के साथ-साथ नैतिक और आध्यात्मिक उन्नयन पर भी बल देता है।
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