भारत में सहकारी आंदोलन का वैश्वीकरण: अवसर, चुनौतियाँ और राजनीतिक प्रभाव
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Abstract
भारत में सहकारी आंदोलन (Cooperative Movement) का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा हुआ है, जब इसे आर्थिक स्वावलंबन और सामाजिक समानता प्राप्त करने के प्रभावी साधन के रूप में देखा गया। सहकारी समितियाँ मूल रूप से किसानों, मजदूरों और कमजोर वर्गों के लिए एक ऐसा मंच थीं, जहाँ सामूहिक प्रयासों से पूँजी, संसाधन और श्रम का समन्वय करके आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सके। समय के साथ, सहकारी आंदोलन ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था, कृषि उत्पादन, बैंकिंग, डेयरी, लघु उद्योग और उपभोक्ता सेवाओं में उल्लेखनीय योगदान दिया। विशेष रूप से "अमूल" जैसे सहकारी मॉडल ने न केवल ग्रामीण विकास को गति दी बल्कि भारत को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई। उदारीकरण (1991 के बाद) और वैश्वीकरण की लहर ने इस आंदोलन के स्वरूप और कार्यप्रणाली को गहराई से प्रभावित किया। अंतरराष्ट्रीय बाजारों से प्रतिस्पर्धा, पूँजी का प्रवाह, तकनीकी हस्तांतरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की उपस्थिति ने सहकारी समितियों के सामने नई चुनौतियाँ और अवसर दोनों प्रस्तुत किए।
वैश्वीकरण के संदर्भ में सहकारी आंदोलन केवल आर्थिक दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक परिदृश्य में भी गहरे प्रभाव डालता है। सहकारी समितियाँ अब केवल स्थानीय स्व-प्रबंधन तक सीमित नहीं हैं, बल्कि राष्ट्रीय नीतियों और वैश्विक आर्थिक व्यवस्थाओं से जुड़ गई हैं। राजनीतिक दल सहकारी समितियों को ग्रामीण वोट-बैंक और नेतृत्व तैयार करने के मंच के रूप में देखते हैं। यही कारण है कि सहकारिता मंत्रालय की नीतियों, सहकारी बैंकों के प्रबंधन, और डेयरी एवं कृषि आधारित सहकारी संस्थाओं पर राजनीतिक हस्तक्षेप लगातार बढ़ा है। वैश्वीकरण ने सहकारिता क्षेत्र को दक्षता, पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धात्मकता अपनाने पर मजबूर किया है, लेकिन साथ ही राजनीतिकरण और आर्थिक उदारीकरण के दबाव ने इसकी स्वायत्तता और मूल उद्देश्यों को कई बार चुनौती दी है। इस प्रकार, भारत में सहकारी आंदोलन का वैश्वीकरण न केवल विकास का नया मार्ग प्रशस्त करता है, बल्कि राजनीतिक समीकरणों और लोकतांत्रिक संरचना पर गहरे प्रभाव भी छोड़ता है।
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