श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग क्रिया का एक अध्ययन
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Abstract
आज के युग में कार्य-कुशलता के लिए प्रत्येक विभाग में भले ही शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यापक व्यवस्थाएँ हैं किन्तु जीवन जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में इसका अभाव है। यही कारण है कि अपनी कार्य-कुशलता से धन-वैभव, कार-बंगला, पद-प्रतिष्ठा तो मनुष्य प्राप्त कर लेता है, किन्तु जीवन जीने की कला में अपरिपक्व होने के कारण सुख-शान्ति से अछूता ही रह जाता है। पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा से उत्पन्न दम्भ, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, क्रोध आदि मनोविकार उसके प्रेम, मैत्री, सौहार्द एवं सरलता के साथ ही साथ उसकी प्रसन्नता भी चली जाती है। नकारात्मक विचार उसके जीवन को दुर्वह बना देते हैं। फलतः वह थका-हारा जीवन की सरसता से शून्य, विभिन्न रोगों से ग्रस्त होकर दुःखी जीवन बिताने को बाध्य हो जाता है।
कर्म प्रकृति का अटल सिद्धान्त है। निष्क्रियता प्रकृति को सहन नहीं है। कोई भी जीव बिना कर्म किये किसी क्षण नहीं रह सकता है। इसलिए निर्धारित कर्म से भाग कर सुख-शान्ति, सफलता और कल्याण सम्भव नहीं है। प्रत्येक स्थिति में अपनी रुचि और क्षमता अनुकूल कर्म का चुनाव कर निर्धारित कर्म को निष्ठापूर्वक करते रहना चाहिए -
‘न हि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति’
कर्म प्रकृति का अटल सिद्धान्त है। निष्क्रियता प्रकृति को सहन नहीं है। कोई भी जीव बिना कर्म किये किसी क्षण नहीं रह सकता है। इसलिए निर्धारित कर्म से भाग कर सुख-शान्ति, सफलता और कल्याण सम्भव नहीं है। प्रत्येक स्थिति में अपनी रुचि और क्षमता अनुकूल कर्म का चुनाव कर निर्धारित कर्म को निष्ठापूर्वक करते रहना चाहिए -
‘न हि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति’
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How to Cite
आरती कुमावत. (2024). श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग क्रिया का एक अध्ययन. International Journal of Advanced Research and Multidisciplinary Trends (IJARMT), 1(1), 79–85. Retrieved from https://ijarmt.com/index.php/j/article/view/21
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References
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